आग्रह…. एक वृक्ष का

मैं भी आपकी ही तरह,
परमेश्वर का पुत्र हूँ,
और
आप ही की तरह,
मेरा भी अपना परिवार व समाज है।
मुझे भी परमेश्वर ने
आपकी संतानों की तरह,
जन्म, पालन-पोषण, संवर्धन
और
संरक्षण की जिम्मेवारी सौंपी है।
बंधु-सखा और सर्व देव-देव मानो।
मानवीय कदाचरण के कारण,
आज मेरा अस्तित्व
बरबादी की कगार पर है
मेरे इस हश्र से,
मेरी संवेदनशीलता आहत है।
तुम्हारे अस्तित्व के सृजन हेतु,
मैं संकल्पित हूँ।
हमारा अस्तित्व जीवंत रहे,
मुझे तुम अपना ही माता-पिता,
तुम मुझे अपना मानो,
मैं तुम्हें अपना मानूँ
मेरे प्रति तुम अपनी सजगता और
संवेदनशीलता का सदाचार देखो।
तुम स्वयं अपने अस्तित्व को समझो,
तुम मुझे समझो,
मैं तुम्हें समझें,
अपना लो मुझे और,
बचा लो स्वयं को
मेरे साथ काश-ऐसा हो,
फिर देखना जीवन के परम आनन्द को।
सजल नयन से, कृशकाय तन से
आहत मनसे समर्पित है,
युग के वन के जीवन से

लेखकः
वन विभाग, सतपुड़ा भवन, भोपाल

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